पड़ी है कमबख्त कब से
उसी कोने में
समझ खाला का घर जैसे
बैठ गयी है पैर तोड़
“अरे दिन के दिन जा रहे हैं
तू कब जाएगी?
घंटे बोल के आई थी
महीने निकल गयें
तू कब निकलेगी?
झाँक जरा बाहर खिड़कियों से
आसमान खुला है
इन्द्रधनुष खिला है
पुष्प की पंखुड़ियों पे पड़ी
बारिश की बूंदें सरक रहीं हैं
तू कब सरकेगी?
सुन तो जरा दरवाजे पे पड़ी दस्तक
काफी देर से आ रही है
कुछ तो कहे जा रही है
यूँ खटखटाते खटखटाते थक कर
राही चल देगा
तू कब चलेगी?
मेरी कल्पना की दुनिया से
नीरस इस जहां में
जो आना ही न था
एक पाँव निकाल के दूसरा
जो बढ़ाना ही न था
तो दुर्दशा दिमाग की ना करती
उसी कल्पना की दुनिया में रहती
बचे अधूरेपन को उसी जहां में भरती |
As always :)
ReplyDeletebadiya hai chauriiii!!
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