तुम्हें
शायद बालू के किनारों पे
या रेत
के टीलों में
लकीर
खींचने की आदत होगी
जिन्हें
पानी की एक लहर
या हवा
का एक थपेड़ा
मिटा
देता है
और
अनगिनत ऐसे
लकीरों
के लिए
जमीन फिर
से तैयार हो जाती है
और तुम
सोचते होगे
ऐसे हर
एक लकीर का
यही
अंजाम होता है
हर एक
सतह
खुद-ब-खुद
समतल हो
जाती है
पुरानी
चमक
पुराने
अन्दाज के साथ|
लेकिन ये
दिवार – ये दिवार
बड़े मशक्कतों
के बाद
उठाई गई
है
कुछ मिला
के उम्मीद का सीरमिट
कुछ घोल जज्बातों
का पानी
पलस्तर लगे
हैं
और उसपे
अनगिनत यादों
की रंग
बिरंगी स्याही से
पुताई
हुई है
इसपे जो
तुमने
चाह कर
या अनमने
लगाया है
उसे
खरोंच कहते हैं|
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