कथा आरम्भ करने से पहले तो आपको हम ये बता दें
की ‘चीनीया बदाम’ किसे कहते हैं – ‘मूंगफली’ को| बिहार और पूर्वांचल - जोकि हमेशा
से भारत की आर्थिक गरीबी के द्योतक रहे हैं – के इलाकों में मूंगफली को पौष्टिक
बादाम का सस्ता विकल्प माना जाता है – और इसलिए ये नाम| तकनीकी तौर पे ज्यादा गलत भी नहीं – दोनों ही प्रोटीन के अच्छे
श्रोत हैं|
हमें मूंगफली बहुत पसंद है - और हमने बड़े ही
विविध तरीकों से इसका सेवन करा है| मुंबई में कभी ट्रैफिक में फंसे हों तो ‘सींगदाने’
का एक cone सिग्नल पे खरीद लीजिये और फांकते रहिये| मुंबई की जग प्रसिद्द ट्रैफिक में
ऑफिस से घर तक का सफ़र कम कष्टदायक लगने लगता है| या फिर दिल्ली में बियर के साथ ‘मसाला
पीनट’ – आय हाय! अल्कोहल के तो हम ऐसे ही बहुत शौक़ीन नहीं लेकिन मूंगफली के साथ तो
सही लगने लगता है| या फिर एकदम अमरिकी स्टाइल में पीनट बटर पावरोटी पे लगा के खाइए|
हमारे यहाँ पीनट बटर के इतने डब्बे इकट्ठे हो गए हैं की हमारी maid ने मसालों के पुराने बेडौल
और अलग थलग डब्बों को उनसे रिप्लेस कर दिया है|
लेकिन भाई साहेब, हम आपको बताते हैं कि मूंगफली
खाने का असली मजा कैसे आता है| सर्द की कोई शाम किसी कसबे में हो, अँधेरा हो चुका हो, लाइट चली
गई हो, सड़क के किनारे उस ठेले पे ढिबरी की रोशनी लगी हो और कोई जनाब कढ़ाई में मूंगफली
की पूरी फलियाँ बालू के साथ भूनते हुए मिल जाएँ| उनसे जाके सौ-पचास ग्राम छिल्के
के साथ वाला ‘चीनीया बदाम’ खरीद लीजिये| वहीँ कहीं सड़क के किनारे विराजमान हो
जाइये और तर्जनी एवं अंगूठे से मसल के फलियाँ तोड़िए| जो कर्रर्र की आवाज के साथ छिल्के
टूटे और उनमें से सोंधी सी खुशबू के साथ वो दो चार ताजे ताजे दाने निकले तो समझ
लीजिये आपका जीवन सफल हो गया| बचपन में टाटपट्टी पे बैठ के रामलीला देखते हुए ‘चीनिया
बदाम’ खाने की याद बहुत ही प्यारी है हमें| मल्टीप्लेक्स की मखमली कुर्सी पे बैठ
के पॉपकॉर्न खाते हुए शाहरुख़ की पिक्चर देखने में भी उतना मजा नहीं – खासकर शाहरुख़
की|
अब बात आती है गोलगप्पे की| भारत में एक ही खाने
वाली चीज के इससे ज्यादे नाम कभी नहीं हुए हैं – गोलगप्पे, बताशे, पताशे, फुचका, फुलकी,
पानीपूरी! लेकिन निस्संदेह सबसे क्यूट नाम तो ‘गोलगप्पा’ ही है| अब आप अगर हाईजीन
वगैरह को लेके ज्यादे संवेदनशील हैं तो किसी अच्छे से रेस्टरेंट या होटेल में बैठ
के भी ये जायकेदार चीज खायी जा सकती है| लेकिन हम आपको बताते हैं कि गोलगप्पे खाने
का असली मजा कैसे आता है| उसी कसबे में, उसी अँधेरे बाजार में और एक वैसे ही ढिबरी
की रोशनी में जगमगाते ठेले पे जाइए – ठेले के ऊपर लिखा हो ‘फलाना चाट भण्डार’| रेट
पूछिये, और अगर वो भईया बोले की ‘इतने रुपये में एक प्लेट’ – फ़ौरन मुड़ जाइये और
दूसरा ठेला ढूढ़िये और अगर किस्मत से वो बोलें ‘इतने रुपये में इतना’ तो प्रेम से
बोलिए “खिलाओ यार और मिर्ची ज्यादे रखना|” अब अगर वो हाथ से आलू छोले के मिक्सचर
को सानके गोलगप्पे बनाये, आपके प्लेट में परोसे और उसे चटखारे लगाके खाते हुए आपकी
आँखों से आंसू टपकने लगे और आप तब भी बोलें “और खिलाओ, और खिलाओ”, तो समझ लीजिये
आपका जीवन धन्य हो गया| बस इतना भी मत खा लीजियेगा की सुबह दिक्कत हो जाये| हें
हें हें!
फिर आई बारी चाय की – मोदी जी की अतुल्य
विनम्रता और सादगी का प्रतीक| आग, पहिये और मैगी के बाद मनुष्य की सबसे बड़ी खोज|
चाय एक ऐसी चीज है जिसे दुनिया के हर कोने में हर भांति के लोग हरेक परिस्थिति में
उपयोगी मानते हैं| दिन की शुरुआत तो चाय, थकान मिटानी हो तो चाय, दोस्तों से तफरी
करनी हो तो चाय, मेहमान आ गए हों तो चाय, काम के वक्त चाय, आराम के वक्त चाय, अमीर
की चाय, गरीब की चाय| हमें तो ये समझ नहीं आता की किसी राजनैतिक दल ने चाय को अपना
चुनावी चिह्न अभी तक घोषित कैसे नहीं करा है! चाय से अधिक जन-प्रतिनिधिक, सर्वसम्बद्ध
और धर्मंनिरपेक्ष चिह्न तो कुछ हो ही नहीं सकता|
खैर, आप कई प्रकार की चाय को कई तरीके से पी
सकते हैं| सेवेन स्टार से लेके आलिशान कैफ़ेज में महंगे चीनी मिटटी वाले कप में
सर्व करा जाता है चाय| लेकिन हम आपको बताते हैं कि चाय पीने का असली मजा कैसे आता
है| उसी कसबे में, उसी अँधेरे बाजार में और लानटेन की रोशनी में चमकते एक गुमटी
खोजिये, जहाँ दुकानदार एल्युमीनियम की केतली में केरोसीन के स्टोव पे चाय बना रहा
हो| उसकी लकड़ी की मेज पे बैठिये और प्रेम से बोलिए “भईया, एक अदरक वाली चाय
मिलेगी?” वो केतली को तीन फीट ऊपर उठाके कांच की ग्लास में मस्त धार के साथ गिराए –
बीच में प्लास्टिक की छन्नी हो और भांप छोड़ते हुए आपका ग्लास भर जाये| फिर आप उस
ग्लास को पकड़ के सुर्रर्र करते हुए चुश्की लगाइए – और हमें बताइए उस क्षण में दुनिया
का कौन गम आपके आस पास ठहरता है|
अब एक ही दिन में अगर आपको ये तीनों एक साथ मिल
जाएँ तो क्या बात! राजधानी की रेलम पेल वाली ज़िन्दगी से एक दिन के लिए निज़ात पानी
हो, तो बस बस्ता उठाइए और चल दीजिये| ठण्ड के मौसम में जब रात का अँधेरा कुहरे का
लिबास ओढ़े आपके सामने अंगड़ाईयाँ तोड़ रहा हो – आपके लिए इससे ज्यादे संतोषजनक और
शान्तिपूर्ण अनुभव और कुछ नहीं हो सकता|
समय: शाम के ७:३० बजे, जगह: नीमराना - अलवर जिले
का छोटा क़स्बा (दिल्ली से तकरीबन १५० किलोमीटर दूर)
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