कभी कभार जो तुम खुद नहीं होते
तो भी अच्छे होते हो
आखिर खुद को जान लेना
सौ फीसदी
मुमकिन कहाँ है
हम अक्सर ही खुद का दायरा
खुद के खयालों से
समेट लेते हैं
फिर उँगलियों
से छू के पाला
हो मुतमइन
इतराते हैं
और फिर कभी कभी
इत्तेफाकन
किसी रोज
एक पाँव लकीर के पार
निकल आये जो
अनजाने ही सही
खुद के बारे में
खुद की समझ
बदल जाती है
कभी कभार जो तुम खुद नहीं होते
तो ही अच्छे होते हो|
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