Wednesday, December 28, 2011

एक अधूरी कविता

पड़ी है कमबख्त कब से

उसी कोने में

समझ खाला का घर जैसे

बैठ गयी है पैर तोड़

“अरे दिन के दिन जा रहे हैं

तू कब जाएगी?

घंटे बोल के आई थी

महीने निकल गयें

तू कब निकलेगी?


झाँक जरा बाहर खिड़कियों से

आसमान खुला है

इन्द्रधनुष खिला है

पुष्प की पंखुड़ियों पे पड़ी

बारिश की बूंदें सरक रहीं हैं

तू कब सरकेगी?


सुन तो जरा दरवाजे पे पड़ी दस्तक

काफी देर से आ रही है

कुछ तो कहे जा रही है

यूँ खटखटाते खटखटाते थक कर

राही चल देगा

तू कब चलेगी?


मेरी कल्पना की दुनिया से

नीरस इस जहां में

जो आना ही न था

एक पाँव निकाल के दूसरा

जो बढ़ाना ही न था

तो दुर्दशा दिमाग की ना करती

उसी कल्पना की दुनिया में रहती

बचे अधूरेपन को उसी जहां में भरती |

Sunday, October 2, 2011

अंतर्द्वन्द्व

एक तू मुझमें ही मुझ जैसा नहीं!
मैं कहूँ जो मैं करूँ जो - सब गलत, बस तू सही!
एक तू मुझमें ही मुझ जैसा नहीं!

हो मुनासिब जो मुझे, मुश्किल हो तेरी,
हो उदासी जो मेरी, महफ़िल हो तेरी,
चाहता हूँ मैं जिसे हो दूर मुझसे,
है बखूबी जानता, मंजिल वो तेरी,

जो मुझे प्यारा है जिसकी आरज़ू है,
क्यूँ सुहाता है नहीं तुझको वही,
एक तू मुझमें ही मुझ जैसा नहीं!

जो तरीकों से मेरे दुनिया ख़फा हो,

लेश भर परवाह मुझको क्यूँ भला हो,
क्या नया इसमें, सुनूँ उसकी मैं क्यों फिर,
जो मेरी हर एक तरक्की से जला हो,

लड़ भी जाऊं मैं अकेले जग से लेकिन,
अनसुनी कर दूँ मैं कैसे ये नसीहत अनकही,
एक तू मुझमें ही मुझ जैसा नहीं!

ठान कर हर बार जो घर से निकलता हूँ,
एक रस्ता एक ही गंतव्य रखता हूँ,
पथभ्रमित मुझको बनाके ख़ूब खुश होता,
मैं विकल्पों की अति में ही तो मरता हूँ,

खा तरस कर अब रहम थोड़ा यहाँ मुझपे,
जो कहा शुरुआत में था, मान ले एक बारगी,
एक तू मुझमें ही मुझ जैसा नहीं!

Thursday, April 14, 2011

A STORY

Two versions of a story –

One bitter, one sweet

One murky, one neat

Two versions of a story –

One heavy, one light

One rare, one trite

Two versions of a story –

So different together, so same apart

None right, none wrong – both in part.

Sunday, February 20, 2011

जलती अंगीठी

घेर लपट से डंडियाँ - कोयले जलाकर,

जल रही देखो अंगीठी |


याद करती प्रथम चिंगारी, मरुत ने दी बुझा,

क्रूर ऐसा कृत्य करके था हँसा,

पर थपेड़े सह के जो इक बारगी

भभक कर जलते हुए लौ ये उठी

दास बनके मरुत ऐसा लगा चलने,

प्रज्वलित चिंगारियों को लगा करने,


सहम शुरू में थी अभी हँसती डराकर,

जल रही देखो अंगीठी |


काट वन-वृक्षों से लाया काठ का टुकड़ा,

कभी पुष्पों पत्तियों से था घिरा,

ऐंठता गर्वान्वित होकर सदा जो,

“नभ की छाती में करूँगा छेद अब तो”,

सोच कर उन्मत्त हो कर जो बढ़ा,

कट के आके जमीं पर बेबस गिरा,


तन में उसके जो बचा था द्रव सुखा कर,

जल रही देखो अंगीठी |


खोद धरा का गर्भ निकाला हुआ कोयला,

कल जो उसकी गोद में था सो रहा,

“काल को दे टाल मैं तो हूँ अमर,

कौन मुझको छू सकेगा आ इधर”,

सोच कर खुश हो रहा था जो बड़ा,

चोट आके इक हथौड़े का पड़ा,


दग्ध उसकी कठोरता को पिघलाकर,

जल रही देखो अंगीठी |

Wednesday, January 26, 2011

चूहों कि दौड़

आगे चूहे दौड़ रहे हैं, पीछे चूहे दौड़ रहे हैं,
दायें चूहे बाएं चूहे, मस्त कतारें जोड़ रहे हैं,
बिना रुके बिन खाये पीये घोड़ो के से सरपट सरपट,
इसके आगे भाग रहे हैं, उसको पीछे छोड़ रहे हैं.

कूंच करे किस ओर, कहाँ है जाना, मंजिल और किधर है,
किसे पता है कौन जानता, किसे यहाँ पर पड़ी फिकर है,
"ये साला आगे है कैसे? वो साला अब दूर नहीं है",
बस आगे पीछे का चक्कर, रुकने का दस्तूर नहीं है.

रुके भला भी कैसे कोई, रौंद निकल जायेंगे सारे,
पीछे वाले इसी ताक में ही तो माथा फोड़ रहे हैं,
आगे चूहे...

निकल पेट से आये देखो, चूहे नन्हे प्यारे छोटे,
और कबर के पास खड़े भी इसी दौड़ में शामिल होते,
पतले मोटे, दुर्बल जर्जर, दौड़ रहे हैं हांफ हांफ कर,
देख छलांगे मार रहे हैं, कूद रहे हैं पुछ उठा कर.

ये टाँगे ये कुहनी मारे, इसे गिरा उसको धक्का दे,
ताकतवर चूहे कमजोरो के हाथो को मोड़ रहे हैं,
आगे चूहे ...

फ़ौज बड़ी ये बढती जाये, जो भी चाहे आ मिल जाये,
नहीं फीस कोई लगनी है, जिसको चाहे साथ ले आये,
पर जो आये एक मर्तबा, वापस जाने कि ना सोचे,
देख यहाँ जिसको जितना है, सब ही तो निचोड़ रहे हैं,

आगे चूहे दौड़ रहे हैं, पीछे चूहे दौड़ रहे हैं.