घेर लपट से डंडियाँ - कोयले जलाकर,
जल रही देखो अंगीठी |
याद करती प्रथम चिंगारी, मरुत ने दी बुझा,
क्रूर ऐसा कृत्य करके था हँसा,
पर थपेड़े सह के जो इक बारगी
भभक कर जलते हुए लौ ये उठी
दास बनके मरुत ऐसा लगा चलने,
प्रज्वलित चिंगारियों को लगा करने,
सहम शुरू में थी अभी हँसती डराकर,
जल रही देखो अंगीठी |
काट वन-वृक्षों से लाया काठ का टुकड़ा,
कभी पुष्पों पत्तियों से था घिरा,
ऐंठता गर्वान्वित होकर सदा जो,
“नभ की छाती में करूँगा छेद अब तो”,
सोच कर उन्मत्त हो कर जो बढ़ा,
कट के आके जमीं पर बेबस गिरा,
तन में उसके जो बचा था द्रव सुखा कर,
जल रही देखो अंगीठी |
खोद धरा का गर्भ निकाला हुआ कोयला,
कल जो उसकी गोद में था सो रहा,
“काल को दे टाल मैं तो हूँ अमर,
कौन मुझको छू सकेगा आ इधर”,
सोच कर खुश हो रहा था जो बड़ा,
चोट आके इक हथौड़े का पड़ा,
दग्ध उसकी कठोरता को पिघलाकर,
जल रही देखो अंगीठी |