Sunday, May 10, 2015

खरोंच

तुम्हें शायद बालू के किनारों पे
या रेत के टीलों में  
लकीर खींचने की आदत होगी
जिन्हें पानी की एक लहर
या हवा का एक थपेड़ा
मिटा देता है
और अनगिनत ऐसे
लकीरों के लिए
जमीन फिर से तैयार हो जाती है

और तुम सोचते होगे
ऐसे हर एक लकीर का
यही अंजाम होता है
हर एक सतह
खुद-ब-खुद
समतल हो जाती है
पुरानी चमक
पुराने अन्दाज के साथ|

लेकिन ये दिवार – ये दिवार
बड़े मशक्कतों के बाद
उठाई गई है
कुछ मिला के उम्मीद का सीरमिट
कुछ घोल जज्बातों का पानी
पलस्तर लगे हैं
और उसपे अनगिनत यादों
की रंग बिरंगी स्याही से
पुताई हुई है
इसपे जो तुमने
चाह कर या अनमने
लगाया है

उसे खरोंच कहते हैं|