Saturday, March 24, 2012

थोड़ा ज्यादा

आज कल मैं खुद से कुछ ज्यादा मांगने लगा हूँ


थोड़ी ज्यादे बड़ी खुशी, थोड़ी ज्यादे लंबी हंसी

थोड़े जीत के लम्हें ज्यादे, थोड़ा बेहतर होने का एहसास;


स्वार्थ है या बेवकूफी

लालच है या चुनौती

है अहंकार या कुछ भी नहीं

नशा सा है जो भी है ये;


कभी जब बर्दाश्त तक चढती है

तो मजा देती है

हर वो काम जो चंद लम्हों पहले कठिन लगता था

कर लेता हूँ

और फिर थक कर जब बैठता हूँ

तो फुले नहीं समाता

देख के अपनी ही रचना को;

कभी जब बर्दाश्त तक चढती है

तो उतरने के बाद भी मजा देती है


कभी जब सर पर चढ़ जाये

तो सब उल्टा हो जाता है

दुनिया भी, काम भी और नशे का अंजाम भी

हर सरल तरीके से भरोसा उठ जाता है

और हर काम कठिन हो जाता है

इतना पूर्ण तो उसका संसार भी नहीं

जितना मैं चाहता हूँ;

कभी जब सर पर चढ़ जाये

तो न उतरने में ही भला होता है


हर नशे की तरह ये नशा भी बुरा है

मुझे भी लगता है, तुम भी कहोगे

इतना भी ना मांगो खुद से कि

खोखले हो जाओ|